अब इस रात की सुबह नहीं...
जब 'बहुत खतरनाक होता है सपनों का मर जाना' जैसे जुमलों से लबरेज किताबों के पन्ने पलटने लगे तो नानी की वे तमाम कहानियां मायूसी, मनहूसियत, लाचारगी और यों कहें कि भयानक निराशावाद के बयान नजर आने लगे, जो उनके मुताबिक इस दुनिया के पेचोखम से उलझी वे तल्ख़ हक़ीकतें थीं, जिससे छुटकारा किसी सपने से कम नहीं था। तब नानी के ख़यालों से ज्यादा से ज्यादा इतने रजामंद थे कि वहां भी छुटकारे का खयाल कम से कम एक सपने के बतौर मौजूद तो था! यानी बंद दीवारों के पार जाने की उम्मीद तभी तक कायम है, जब तक सपने जिंदा हैं।
ऐसे कुछ और जिंदा जुमलों के सहारे ज़िंदगी की चिंगारी ढूंढ़ लाने के हौसले के साथ राख के पहाड़ों को धूल करते रहे, इस बात से गा़फ़िल कि तमाम चिंगारियों का वजूद खत्म हो जाने के बाद ही कोई चीज राख के ढेर में तब्दील होती है।
इस सच्चाई को कबूल कर लेने में क्या हर्ज है कि जिस तरह सूरज है, चांद है, सितारे हैं, आबो-हवा है, जो जिंदगी के बाइस हैं, उसी तरह राख भी है जो ज्यादा से ज्यादा क्या है? मायूसी और मनहूसियत का आईना ही न?
खुशी की तलाश और खुशी किसी का भी हक है। मगर तलाश की हरेक राह अगर मायूसी के दरवाजे जाकर खत्म होती है, तो दुखों के आदत में तब्दील हो जाने पर हैरत क्या! और खुशी या खुशी को खोज लेना अगर ज़िंदगी जीने के लिए एक जरूरी रंग है तो दुखों के सिलसिले भी तो किसी के हिस्से होने चाहिए!
मुश्किल यही है कि इस मनहूस आदत के बावजूद ज़िंदगी के चंद टुकड़ों की हसरत पूरी तरह मर नहीं रही।
टुकड़ों में घुट रही सांसें बार-बार लंबी हो रही हैं कि ठहर जाएं, कि गुजर जाएं! न रुकती हैं, न चलती हैं! उम्मीद की लौ कभी जलती भी है तो थोड़ा और राख़ कर जाने के लिए।
कह तो देंगे हम कि राख़ के इसी ढेर में छिपी हो सकती है ज़िंदगी की चिंगारी भी कहीं...। राख़ में ज़िंदगी की चिंगारी नहीं है कहीं! अब राख ही ज़िंदगी है- इस हकीकत को गले लगा लेना कम से कम इतना तो होगा कि नाकामी के सिलसिले उम्मीदों के मायने में तब्दील नहीं होंगे! आसमान में परवाज़ के मिसाल से सपनों पर भरोसा कम तो नहीं होगा!
नाकामी नहीं होगी तो कामयाबी कहां होगी? फिर सिर्फ कामयाबी की मुबारकें क्यों?
यों भी अपनी नाकामी का नशा ज़िंदगी के सुरूर पर भारी है। अब जीने की हसरत क्या, और मौत की फ़िक्र क्या!
अब सपनों के मर जाने के खतरे से जूझने के दौर से हमारी वापसी का दौर है। अब नानी की कहानियां बहुत याद आने लगी हैं।
सचमुच दीवारें बहुत ऊंची हैं और सिर्फ सपनों के सहारे इनसे पार पाना मुमकिन नहीं!
अब थकान बहुत गहराती जा रही है। सपनों की नींद सपने जैसी ही है। उस पुराने, छोटे और टूटे हुए घर की नींद बहुत अच्छी थी। उम्मीद है, वहां की सबसे लंबी नींद भी पुरसुकून होगी...!