Tuesday, November 20, 2007

मेरा शहर


एक शहर छोड़ के आया हूं
एक नए शहर में आया हूं
जो शहर छोड़ के आया हूं
तो खुद को तोड़ के आया हूं
कुछ दरवाजे छूटे होंगे
कुछ रिश्ते भी टूटे होंगे
किसने छोड़ा, किसने तोड़ा
यह तय करना तो मुश्किल है
पर इतना तो तय है फिर भी
जब सीने के खूं से सन कर
घर कोई जोड़ा जाता है
तब अश्क लहू बन रिसते हैं
जब घर वह छोड़ा जाता है

यह मिट्टी-गारे क्या समझें
पानी क्या है और खूं क्या है
बस सीना थोड़ा दुखता है
बस सांसें थोड़ी रुकती हैं
जब सांसें रुकने लगती हैं
दरवाजा तभी छूटता है
और शहर तभी छूटता है


धीरे-धीरे
अंदर ही अंदर
कोई महल टूटता है
पर कहीं किसी के कानों में
आवाज नहीं जा पाती है
और कोई आवाज कहीं
चुपचाप दफन हो जाती है

पर उम्मीदों का क्या कीजै
सुन ले कोई
बस यही सोच कर
नए शहर में जाती हैं
पर क्या कीजै
इस नए शहर में
रंग बहुत ही ज्यादा हैं
गलियां गर चौड़ी हैं इसकी
तो भीड़ बहुत ज्यादा भी है
जो भीड़ बहुत ज्यादा है तो
कुछ चेहरे पीछे छूटेंगे
लोगों के बोझ तले दब कर
कुछ घर की छत भी टूटेगी
कुछ लोगों के सिर फूटेंगे


पर भीड़ रुकेगी क्यों आखिर
किसकी मंजिल है कहां किधर
इन बातों से है क्या मतलब
किसके जूतों से कौन दबा
रुक कर रोया
पर भीड़ रुकी किसकी खातिर

जो ठोकर खाकर गिरे यहां
जज्बातों में बह गए यहां
यह भीड़ उन्हें ही रौंदेगी
उन पर यह भीड़ हंसेगी भी
गिरने वाला
रोने वाला
लाचार टूट कर शायद तब
हो जाएगा जब खत्म यहां
जब भीड़ गुजर जाएगी
तब भी शेष बचा रह जाएगा
चल देगा फिर से उस रस्ते
जो नए शहर को जाता है।

4 comments:

Fauziya Reyaz said...

naye shehar ko bahut khoob describe kiya hai aapne...very touching

Fauziya Reyaz said...

naye shehar ko bahut khoobsurti se describe kiya hai...very touching yet real

Rahul Singh said...

अनवरत सफर का सिलसिला.

Sunitamohan said...

bahut bahut sundar rachna....atmvibhor karti aur shahari aapa-dhapi ka chitran karti si! badhai