Tuesday, August 19, 2008

मेरे साथ


फिर से इस शहर की हवा ने छुआ है मुझे
फिर से उम्मीद ले के आएगी हर सुब्ह
फिर से हर राह यूं बढ़ेगी मंजिलों की तरफ
कि जैसे अब ये दुनिया मिरी हो जाएगी
अब मिरी राह मे गीतों के उजाले होंगे
अब आसमान ये आएगा मेरे पहलू में

मगर इस सबसे कहां रुक सकेगी आज की शाम
जहां रोज की तरह ढलेगी मेरी सुब्ह
और फिर से वही तारीकियां हो जाएंगी जवां
खलाएं-खलिश और मायूस-सी दास्तान
जो आज भी हैं साथ मेरे
और कुछ भी नहीं।

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