Friday, December 23, 2011

नींद यों नहीं आती...



(मिर्ज़ा गा़लिब से माफी के साथ)

हसरतें बार-बार याद दिलाती हैं हमें
कि ज्यों आबो-हवा चाहिए जीने के लिए
उसी तरह कुछेक राहतें अपनी हैं यहां
कुछ उड़ते हुए अरमान कि छूते हुए एहसास


जी भर के कुछ पलों को जिएं, इसका हौसला
कोई साथ बहा ले चले दरिया की मौज हो
ठहरी हुई फ़िज़ां में कभी आंधियां भी हों
तूफ़ान कोई लाए कभी ताज़गी के रंग
कि जिसकी ऊब-डूब में न कुछ भी याद अब रहे
सिवा कि चंद उन पलों की ज़िंदगी को थाम लें


बरसे कभी बहार बन के कोई तो बादल
कभी नहा के मन-चमन निहाल-हाल हो चले
कई सदी की प्यास की थकन ये अब यहां मिटे
बहुत दिनों से बोझ-बोझ-सी इन आंखों में, जरा नींद आए


कि जबकि मौत का इक दिन ये मुअय्यन है लेकिन
ये हसरतें बार-बार जवां होती हैं
कभी डूबे हुए, सोए हुए एहसास के साथ
मगर न तूफान आता है, न बहार आती है
न थकन होती है, न करार आता है
इसलिए नींद रात भर यों नहीं आती है...

1 comment:

mamta vyas bhopal said...

bahut sundar rachanaa