Friday, April 15, 2011

शिगूफ़े...

(नोएडा की दो बहनों के नाम...)



एक हमारा गांव है
जहां हमारे छोटे-से घर के आंगन के
सन्नाटे को चीरती हुई पिता की याद
पांच बरस बाद के बाद भी
बरामदे की दीवार से पीठ टिकाए
निढाल-सी बैठी मां की आंखों से बहने लगती है
तो ठीक उसी वक्त किसी काम से
हमारे घर आई मिर्जापुर वाली दादी
सुबकती मां को अपनी छाती से लगा लेती है
सिर और पीठ सहलाने लगती है
बोलते हुए दिलासे के साथ
फिर पड़ोस की चाची आती है
और कई चाचियां, बुआएं और दादियां आती हैं
दिलासा...
दिलासा-दर-दिलासा
...मत रो डुमरी वाली
सब ठीक हो जाएगा

किसी चाची की निगाह
पेट के बल लेटी और तकिए में सिर गाड़े
चार फुट की परित्यक्ता बहन पर पड़ती है
(जो दुर्भाग्य से ऐश्वर्य राय जितनी खूबसूरत नहीं है)
और उसे भी अपनी छाती में भींच कर
कई चाचियां और बुआएं
देती हैं ढेर सारे दिलासे
मत रो... कि सब ठीक हो जाएगा

...सचमुच थोड़ी देर में
बहुत कुछ ठीक हो जाता है

एक हमारा शहर है
जहां हम अपनी तकलीफों से मायूस भी नहीं हो सकते
अगर उदासी कभी छा ही जाती है
तो हमारे कई दोस्त
पहली निगाह में ही खोज निकालते हैं
हमारी उदासी की वजह
और फैसला दूसरे दोस्तों को सुनाते हैं
कि वह खूब अच्छी तरह जानता है
हमदर्दी हासिल करने के शिगूफे...

4 comments:

Parul kanani said...

baat dil tak hai...

संतोष त्रिवेदी said...

अब ना वो घर-गाँव रहे
नहीं रहा वो अपनापन ,
पैसे के पीछे हम भूले,
प्यार-भरा वो आलिंगन !

SANDEEP PANWAR said...

बेहतरीन प्रस्तुति।

Sunitamohan said...

bahut khoobsurati k saath bataya hai Gaon aur Shahron ke beech insaani fitrat aur fark.......Par kya ab bhi Gaon me ye Gaon vaali baat baaki hai??????? maine to use bhi shahar k is rog se sankramit paya hai!