Tuesday, May 19, 2009

सहर



क्या कौंधा कि उम्मीदों-सी नज़र हुई है,

ठहरे हुए समंदर में इक लहर हुई है।


बहुत दिनों तक मौसम ये मायूस रहा,

आंखें आज बहारों की मुंतज़र हुई हैं।


कांटों के ऊपर से कितने दिन गुजरे,

कितनी मुश्किल से मंजिल ये डगर हुई है।


आफ़ताब बन गए आज ये चांद-सितारे,

बहुत दिनों के बाद शाम ये सहर हुई है।


फिर से आए शाम, तो आए क्या ग़म है,

यों ही अब तक कहां हमारी सहर हुई है।

4 comments:

Fauziya Reyaz said...

very nice...infact touching

फ़िरदौस ख़ान said...

बहुत दिनों तक मौसम ये मायूस रहा,
आंखें आज बहारों की मुंतज़र हुई हैं।

बहुत ख़ूब...

शिवम् मिश्रा said...

बहुत बढ़िया लिखा आपने बधाइयाँ !!

Anonymous said...

ये सहर हमें भा गयी। अरे सहर मतलब गजल।
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क्या आप बता सकते हैं कि इंसान और साँप में कौन ज़्यादा ज़हरीला होता है?
अगर हाँ, तो फिर चले आइए रहस्य और रोमाँच से भरी एक नवीन दुनिया में आपका स्वागत है।