Monday, May 18, 2009

खारिज़

तू मुझे कुछ भी न दे, कुछ भी न दे, कुछ भी न दे
अपने दो-चार पलों की यही दौलत दे दे
तुम्हारे साथ की वो जिंदगी तो मिल न सकी
यूं ही जीना है तो अब जीने की फितरत दे दे...

तुमसे खारिज़ अपने मासूम इन अश्कों के लिए
एक फरियाद है कि तू इन्हें झूठा न कहे
कि समझता हूं तेरी राह की मंजिल है जहां
वहां की धूल में भी मेरे लिए जगह नहीं
तू जिस जहान की बनी है जो जहां है तेरा
न उसमें एक पल की ठांव मेरी खातिर है

कि इसके बाद भी कि अब तलक के हासिल से
मैं जो अरज सका हूं वो तुम्हारा होना है
कहां हूं मैं कि क्या जमीन मेरी मालूम है
कि जिसको छोड़ चला मैं मगर कहां छूटा

मेरे शहर की निगाहें अभी वहीं की हैं
कि जिसको छोड़ चला मैं कभी का बंजारा
जहां रुका वहां से बार-बार खारिज़ हूं...

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