Sunday, October 26, 2008
नींद
जाड़े और गर्मी के
दोपहर में कितना फर्क होता है
हां आसमान
शब्दों की परिभाषाओं को
मौसम के हिसाब से बदलना होता है
यह वहम अब तक बना है
कि प्रेम एक स्वतःस्फूर्त क्रांति है
कई-कई बंधनों से आजादी का गीत है
लेकिन आसमान को छूने की भूख में
जमीन से भी जाता हुआ मेरा वह वहम
कैसे धूल बन कर
धुंआ बन कर
इस ब्रह्मांड के हर एक कोने से बेजार हो गया है
हां आसमान
तब से बहुत पिछड़ा महसूस करता हूं
जब से तुमने ये एहसास कराया है
कि प्रेम आजादी में खलल है
प्रेम आजादी को खत्म करता है
जब भी याद आती है तुम्हारी
याद करता हूं कि मेरी रीढ़ है कि नहीं
मेरी रीढ़ सिहरने लगती है
जब भी तुम याद आते हो
अपनी आंख में भर आए आंसुओं पर
शक होने लगता है
और चीख पड़ता हूं पूरी ताकत से
कि नहीं...
मैं नाटक नहीं कर सकता
क्या बादलों का एक छोटा-सा टुकड़ा हाथ में लेकर
आसमान की राह देखना बेईमानी है
कैसे बचाऊं ईमान
होश खोकर झूमना अब तक नहीं सीख सका
इसलिए मेरे कई दोस्त
चेतना के स्तर पर
पिछड़ा कहने लगे हैं मुझे
शायद सच कहते हैं वे
झूमने के लिए नींद से बाहर आना जरूरी है न
मैं तो हजारों सालों से सोया हूं
लेकिन मैं भी सुबह का सूरज देखना चाहता हूं
साफ नीला आकाश देखना चाहता हूं
सितारों की ओर बढ़ना चाहता हूं
उन लताओं की मानिंद
जो सब कुछ खुद में समेटते हुए
छा जाती हैं
जिस पर आ जाती हैं
लेकिन इसके लिए रात को खत्म होना होगा न
मेरी इस नींद को खत्म होना होगा न
कैसे नींद खुले मेरी
बताओ न आसमान...।
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2 comments:
अरविंद जी, अच्छी कविताएं हैं.
कैसे नींद खुले मेरी
बताओ न आसमान...।
aasman kabhi naheen batayega. wo to chahta hi hai ki ham soye rahen.
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