Monday, September 22, 2008

रोज शाम को खाली-खाली...



रोज सहर उम्मीदों जैसी
रोज शाम को खाली-खाली
यूं ही छत पर पड़े-पड़े
कब तक तारे गिनते जाएं
इन आंखों को थकना भी है
थक के थोड़ा सोना भी है
और कोई आए, न आए
कम-से-कम इक सपना आए
हर शब के आखिरी पहर तक
उम्मीदों के रोज सहर तक...।

1 comment:

Vivek Gupta said...

सुंदर कविता